Saturday 27 December 2014

"ये सच बड़ा आवारा है"



एक सच हमारा है।
एक सच तुम्हारा है।
एक सच उनका भी है।
ये ना मेरा है ना तुम्हारा है।
सच बात तो ये सीखी है-
कि "ये सच बड़ा आवारा है"

महीने का अंत


ज़िन्दगी गरम तवे सी हो रखी है।
ऐसा-वैसा तवा नहीं।
महीने भर खर्चों की आग में 
सुलगता तवा!!
गरम तवे को राहत देने
महीने भर कोई न आता है।
महीने के अंत में दफ्तर से
राहत के नाम पर "तनख्वाह"
पानी की छींट
जैसी कुछ आती है।
सन्न सन्न की आवाज़ कर
भाप बन उड़ जाती है।
ये तनख्वाह छींट भर ही क्यों आती है।
एक दिन में क्यों स्वाहा हो जाती है।
तवा धीरे धीरे धधक रहा है।
ताप के मारे पता चला किसी दिन
ये पिघल रहा है।
हे! तनख्वाह तुम बारिश सी कब बरसोगी?
कब तुम महीने का अंत देख
बरसने को तरसोगी।

शहर


हर दिन मन होता है
कुछ नया करने का।
मन नहीं होता रटी-रटाई
दिनचर्या जीने का।
एक ही ढर्रे पर चल रही
ये ज़िन्दगी पर अभिमान नहीं
मुझे क्रोध हैं।
ये क्या हो गया है हमें
हम इंसान नहीं
कलपुर्जों से बने
रोबोट हैं।
ज़िन्दगी आसान है
मगर आराम नहीं हैं।
हंसते भी बनावटी हैं हम
जैसे अन्दर दिल में कोई
लॉजिकल प्रोग्राम नहीं है।
पूरी ज़िन्दगी भीड़ में अंजानो
के साथ कट रही है।
भीड़ इतनी है कि लोकल ट्रांपोर्ट में
आपस में सट रही है।
कोई मेट्रो के सफ़र में इअर फ़ोन
लगाये टिमटिमाते स्टेशन का इंतज़ार करता है।
कोई ट्रैफिक में फंसे फंसे
शहर को कोसता है।
यहाँ कल्चर नहीं
कोई त्यौहार नहीं है।
गणेश दुर्गा का पंडाल गायब
प्रशाद में मिलता भण्डार नहीं हैं।
यहाँ से निकलना मुश्किल है।
यूँ ही क्यों मन आंसुओ से
आशाओं को सीचता है।
करीयर को रोशन करने
ये चम् चमाता शहर
अपनी ऒर खींचता है।

अंधविश्वास बढ़ गया।


एक्टिवा से सुबह सुबह जा रहे थे।
दिल्ली की सकरी गली थी।
उतने में बिल्ली रास्ता काट गई।
रास्ता भी यूँ काटी कि लगा बस
चक्के के नीचे आ जाएगी।
उसे बचा
ने हमने ब्रेक मारा।
ससुरा स्पीड ब्रेकर भी तभी आना था।
सटपटिया के गिर पड़े हम।
बिल्ली तो बच गई।
मगर आस पास के लोग
ये सब देख कर
एक दूसरे को देखने लगे
और उतने में एक महानुभाव ने कहा-
" बिल्ली रास्ता काटी है भैया !!!
लड़के को तो गिरना ही था"।
बस फिर क्या था।
पुरे मोहल्ले का अंधविश्वास और पढ़ गया।

रघुराज सिंह स्टेडियम वाला क्रिकेट मैच


गर्मी की छूट्टी का आलम होता था।
सुबह से दोपहर माँ घर से निकलने नहीं देती
कहीँ लल्ला करिया ना हो जाये।
तो सुबह से दोपहर टीवी में क्रिकेट देखते थे।
टॉस जीत के जैसे ही गाँगुली बैटिंग लेता
दादी मोटा चश्मा पहने टीवी से सट के
सचिन और सेहवाग को देखने खड़ी हो जाती थी।
दूसरे ओवर में सेहवाग स्लिप में कैच दे देता था।
दादी का मूड खराब हो जाता "बंद करो टीवी" बोलके
गुस्सा के दोपहर की नींद लेने चली जाती थी।
हम तो टीवी से चिपके रहते।
शाम होते ही कॉल बैल बज जाती।
दोस्त चिल्ला के बोलते कि अभय आज नहीं आएगा।
अभय के पास स्टंप होता था।
अब स्टंप नहीं तो चप्पल लगा के स्टंप बनाते।
दो चप्पल स्टंप की चौड़ाई जितनी रखते थे।
चप्पल वाले स्टंप की लंबाई अंदाजे पर होती थी।
अंदाजा लगाने को अंपायर रखते थे।
डेविड शेफर्ड की कद काठी का मोहित अंपायर बनता था।
टॉस हाथ में छोटा पत्थर रख के कौन से हाथ में है पूछ कर होता था।
तुषार ज्यादा रन पिटाता था।
उसके ओवर को बेबी ओवर कर दिया जाता था।
जब भी बैट्समैन विवेक नाली में बॉल मार देता।
बॉलर तुषार को ही बॉल उठाने जाना पड़ता।
बदला लेने के लिए तुषार गीली नाली वाली टेनिस बॉल बिना टिप्पा खिलाये ही बैट्समैन विवेक को बौल कर देता और नाली वाले छीटें से छर्रा के बॉल स्टंप पे लग जाती।
भड़का विवेक चिल्लाता ### साले बॉल टिप्पा खिला के फेंकता।
बहस होती की ये आउट नहीं है !!!ये ऑउट है!!!
उतने में अंपायर मोहित दलील देता कि
पिछली बार अनन्य को भी छींटा लगा था वो तो आउट मान लिया था। बात निपट जाती।
आकाश अक्सर रन आउट हुआ करता था।
या रन आउट करा देता था।
गौरव बत्रा या राजोरिया जब बैटिंग में आते
तो अंगद की तरह जम जाते।
आउट ना होने की कसम लिए खेलते ही जाते।
मैच खत्म कर के सब आकाश के घर के नीचे पानी पीने जमा हो जाते।
आकाश दोस्तों की भीड़ को बोलता रह जाता "भाई प्लीज गाली जोर से मत दो घर है मेरा"।
मगर दोस्त हैं क्या करे वॉल्यूम कम हो जाता मगर हर सेंटेन्स में दे गाली निकलती।
थक के सब घर चले जाते।
मेहुल मुझे साइकिल में बिठाये टिकरापारा ले आता।
दूसरे दिन फिर शाम होती। और रघुराज सिंह स्टेडियम होता।

बच्चे ही तो हैं।



बढ़ते तो शरीर से हैं
मगर मन से
बच्चे ही तो हैं।
अकेले सब माँ बाप से दूर हैं।
मगर अँधेरे में जाने से डरते हैं।
किसी बच्चे को देख कर
पागलो सा चेहरा बना कर हँसाते हैं।
आज भी पुअराना कार्टून मूवी
Youtube में महाभारत,देख भाई देख ,हम पांच
लगा कर weekend गुज़ारते हैं।
सड़क खेलते बच्चों की
फूटबाल आ जाए तो बैकहम स्टाइल में पास देकर
गेंद लौटाते हैं।
ग्राउंड में क्रिकेट खेल रहे बच्चों का गेम रोक कर ट्रॉयल बाल कर आते हैं।
बारिश में बाहर सूखते कपड़ो को उठाने के बहाने भीग आते है।
गीली मिट्टी की ख़ुशबू में यूँ ही खो जाते हैं।
पुराने गाने आज भी प्ले लिस्ट में फवोरेट में लगाते हैं।
घर बैठे माँ-बाप न्यूज़ चैनल में हमारे शेहेर का ठंडी में गिरता पारा देख कर फ़ोन पर स्वेटर पहनना याद दिलाते हैं।
आइसक्रीम खाने के बाद बची कप की आइस क्रीम डायरेक्ट जीभ से चाट जाते हैं।
घर में रखे नर्सरी क्लास का 99% वाले रिजल्ट को घंटो निहारते हैं।
ट्रेन में टाइम पास के लिए चिड़िया उड़ खेलने लग जाते हैं।
दोस्तों को आज भी उनके स्कूल या कॉलेज में बनाये हुए नाम से पुकारते है।
सच बात है।
बढ़ते तो हम शरीर से हैं
मगर मन से बच्चे ही तो हैं।

अटल


ऐसा मैंने सुना था।
कि जिसका जैसा नाम रख दिया जाता है।
वो वैसा ही आचरण करता है।
इसका सबसे गजब उदाहरण अटल जी हैं।
वैसे तो अटलजी का जन्म दिन हम
सब के लिए खास होता है
मगर इस बार और भी खास हो गया।
अटल जी भारत के रत्न थे ही।
उन्हें नवाज़ा आज गया है।
कई रत्नों की चमक है उनमें।
राम का आदर्श है।
कृष्ण सी चतुराई है।
विवेकानंद सा विवेक।
और टैगोर सी लिखाई है।
अकेले ऐसे राजनेता थे।
जो संसद के पटल में जब भी बोलते थे।
तो पूरा संसद शांत हो कर सुनता था।
टोका-टाकी विरोधीे ज़रूर करते।
मगर रोका-रोकी कभी ना कर सके।
दर्शको को सम्मोहित कर
कुछ गजब ही बात बोल जाते थे।
उनके किये कटाक्ष पर
विरोधी भी ठहाके लगाते थेे।
संसद में जब बोलते तो
केवल विपक्ष की ही बुराई नहीं करते
खुद की पार्टी को भी सन्देश देते
राज धर्म का पाठ पढ़ाते।
बात को कहने का अंदाज़ निराला
तेज धार सी कवितायेँ बोल कर
पाकिस्तान के मनसूबों पर
हमेशा अपना गुस्सा उन्होंने निकाला।
गीत नहीं गाता हूँ।
गीत नया गाता हूँ।
आओ मन की गाँठे खोलें
ना जाने कितनी अद्भुद रचनायें हैं।
आज भले ही खामोश हैं
मगर रह रह कर आज भी
हम सबमें गूंजते है।
जन्म दिवस पर शत् शत् नमन